Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती

मंझली रानी ः

३)
पहली बार केवल पाँच दिन ससुराल में रहकर मैं अपने पिता के साथ मैके आ गई। ससुराल के पाँच दिन मुझे पाँच वर्ष की तरह मालूम हुए। मैंने जो रानीपने का सुनहला सपना देखा था, वह दूर हो चुका था। ससुराल से लौटकर मैंने तो कुछ नहीं कहा, किंतु खवासन ने वहाँ के सब हाल-चाल बतलाए। माँ ने कहा, तो क्या रानी केवल कहने के लिए होती हैं? भीतर का हाल हमारे घरों से भी गया-बीता होता है?

मैं अपनी माँ के साथ मुश्किल से महीना-सवा महीना ही रह पाई थी कि मुझे बुलाने के लिए ससुराल से संदेशा आया। राजाओं की इच्छा के विरुद्ध तिल भर भी मेरे पिता जी कैसे जाते? न चाहते हुए भी उन्हें मेरी विदाई करनी पड़ी । इतनी जल्दी ससुराल जाना मुझे जरा भी अच्छा न लगा; परंतु क्या करती, लाचार थी। सावन में, जबकि सब लड़कियाँ ससुराल से मैके आती हैं, मैं ससुराल रूपी कैदखाने में बंद होने चली। देवर के साथ फिर मोटर पर बैठी। इस बार मैंने अपना छोटा-सा हारमोनियम भी साथ रख लिया था।

फिर ससुराल पहुँची। पहली बार तो मेरे साथ माँ के घर की ख़वासन थी, इस बार उस हारमोनियम और थोड़ी-सी पुस्तकों को छोड़कर कुछ न था। मेरा जी एक कमरे में चपुचाप बैठे-बैठे घबराया करता। घर में कोई ऐसा न था जिससे घंटे-दो घंटे बातचीत करके जी बहलाती । केवल छोटे राजा, मेरे देवर की बातें मुझे अच्छी लगती थीं। किंतु वे भी मेरे पास कभी-कभी, और अधिकतर बड़ी रानी की नजर बचाकर ही आते थे। मैं सारे दिन पुस्तकें पढ़ा करती, पर पुस्तकें थी ही कितनी? आठ-दस बार पढ़ गई। छोटे राजा कभी-कभी मुझे अखबार भी ला दिया करते थे किंतु सबकी आँख बचाकर।

घर में सब काम के लिए नौकर-चाकर और दास-दासियाँ थीं। मुझे घर में कोई काम न करना पड़ता था। मेरी सेवा में भी दो दासियाँ सदा बनी रहती थीं पर मुझे तो ऐसा मालूम होता था कि मैं उनके बीच में कैद हूँ, क्योंकि मेरी राई-रत्ती भी बड़ी रानी के पास लगा दी जाती थी। उन दासियों में से यदि मैं किसी को किसी काम से कहीं भेजना चाहती तो वे मेरे कहने मात्र से ही कहीं न जा सकती थीं, उन्हें बड़ी रानी से हुक्म लेना पड़ता था। यदि उधर से स्वीकृति मिल जाती तो मेरा काम होता, अन्यथा नहीं । इसी प्रकार हर माह मुझे खजाने से हाथ-खर्च के लिए डेढ़ सौ रुपए मिलते थे; किंतु क्या मजाल कि उनमें एक पाई भी महाराजा से पूछे बिना खर्च कर दूँ। भीतर के शासन की बागडोर बड़ी रानी के हाथ में थी, और बाहर की महाराजा मेरे ससुर के हाथ में। मेरे पति मंझले राजा, बड़े ही विलासप्रिय, मदिरा-सेवी, शिकार के शौकीन और न जाने क्या-क्या थे, मैं क्या बताऊँ! वे बहुत सुंदर भी थे। किंतु उनके दर्शन मुझे दुर्लभ थे। चार-छ दिन में कभी घंटे-आध घंटे के लिए वे मेरे कमरे में आ जाते तो मेरा अहोभाग्य समझो। उनकी रूप-माधुरी को एक बार जी-भर पीने के लिए मेरी आँखें आज तक प्यासी हैं किंतु मेरे जीवन में यह अवसर कभी न आया।

इस दिखावटी वैभव के अंदर मैं किसी प्रकार अपने जीवन को घसीटे जा रही थी। इसी समय मेरे अंधकारपूर्ण जीवन में प्रकाश की एक सुनहली किरण का आगमन हुआ।

छोटे राजा की उमर सत्रह-अठारह साल की थी। वे बड़े नेक और होनहार युवक थे। घर में पढ़ने-लिखने का शौक केवल उन्हीं को था। छोटे राजा मैट्रिक की तैयारी कर रहे थे और एक मास्टर बाबू उन्हें पढ़ाया करते थे। घर में आने-जाने की उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता थी। घर में स्त्रियों की आवश्यक वस्तुएँ बाहर से मंगवा देना भी मास्टर बाबू के ही जिम्मे था। इसलिए वे घर में सबसे ज्यादा परिचित थे।

विवाह के बाद से ही बड़ी रानी मुझसे नाराज थीं। उन्हें मेरी चाल-ढाल, रहन-सहन जरा भी न सुहाती। वे हर बात में मेरे ऐब निकालने की फिराक में रहतीं। तिल का ताड़ बनाकर, मेरी जरा-जरा-सी बात को वे परिचित या अपरिचित, जो कोई आता उससे कहतीं। शायद वे मेरी सुंदरता को मेरे ऐबों से ढंक देना चाहती थीं। यही बात उन्होंने मास्टर बाबू के साथ भी की। वे तो घर में रोज ही आते थे, और रोज उनसे मेरी शिकायत होने लगी। किंतु इसका असर उलटा ही हुआ। मैंने देखा, तिरस्कार की जगह मास्टर बाबू का व्यवहार मेरे प्रति अधिक मधुर और आदरपूर्ण होने लगा।

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